कहते हैं कभी-कभी सूई के छेद में से हाथी भी निकल जाता है पर पूँछ अटक जाती है। इस कहानी को लिखते हुए भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैंने सोचा कि छेद में से जब पूँछ उधर नहीं निकल पा रही है, तो हाथी को फिर से इधर ही खींच लूँ। लेकिन कड़ी मेहनत-मशक्कत के बाद भी मैं हाथी को सूई के छेद से आर-पार न कर सका। न उस तरफ न इस तरफ। बावजूद इसके कि पूँछ मेरे हाथ में थी। अंततः मैंने यथास्थिति को बने रहने दिया। और उसे जस-का-तस रख रहा हूँ। जो बातें हैं यानी कहानी, वह मेरे दोस्त नत्थू की आधी खाली और आधी भरी डायरी के कुछ पन्ने हैं। ये पन्ने उसके लापता होने के पश्चात मेरे हाथ लगे। इन्हें थोड़े संपादन और तरतीब की आवश्यकता थी। बस उतनी ही छेड़छाड़ मैंने उनसे की। कहानी शुरू होने से पहले अपने इस दखल के लिए नत्थू और सुधी पाठकों से क्षमा माँगते हुए, यह कहानी मैं दोनों को समर्पित करता हूँ। आगे जो लिखा है, उसमें मेरा कुछ नहीं। सब नत्थू का है। मैं तो माध्यम मात्र हूँ, अकिंचन। ' अथ श्री नत्थू कथा...'
विडंबना 'निक नेम' की
दरअसल मैं कुछ भी बोलना नहीं चाहता था। इस पूरे प्रकरण में किसी भी तरह मैं शामिल नहीं था। न इसमें शामिल होने की मेरी इच्छा ही थी। वैसे भी अंग्रेजी के इस कथन में मेरी अटूट आस्था है - 'टू स्पीक इज सिल्वर बट द साइलेंस इज गोल्ड।' मुझे जबरन घसीटा गया और अपनी अंतरात्मा की आवाज को अनसुना कर आखिरकार मुझे बोलना पड़ा। जीवन में पहली बार मैं अपने नाम के प्रति चैतन्य हुआ - 'नाथूराम गांधी'। अपने साथियों - बबलू, गुड्डू, बंटी, मुन्ना, हैप्पी - को जैसे उनके 'निक नेम' से मैं जानता हूँ, वैसे ही इस प्रकरण से पहले सब मुझे 'नत्थू' नाम जानते थे। और मुझे कभी खयाल ही नहीं आया कि मेरा असली नाम क्या है! यहाँ तक कि स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई के दौरान भी, जहाँ रजिस्टर में मेरा नाम नाथूराम गांधी दर्ज होता था, मैं अपने नाम में छुपी 'विडंबना' को पहचान नहीं सका। मुझे विश्वास है कि मेरे अध्यापक और सहपाठी भी इसे कभी जान नहीं पाए होंगे!
हम बोलेंगे तो बोलेगा कि बोलता है
इस पूरे प्रकरण की शुरुआत जुलाई 1998 में हुई हमारे छत्रपति शिवाजी नगर में यह खबर आई कि मुंबई में एक मराठी नाटक 'मी नाथूराम गोडसे बोलतोय' के मंचन को लेकर देश की संसद में हो-हल्ला हो रहा है। लेकिन छत्रपति शिवाजी नगर में जो घटा, वह संसद के हल्ले से ज्यादा ही था।
'मी नाथूराम गोडसे बोलतोय' को जब महाराष्ट्र सरकार ने खामोश कर दिया, तो छत्रपति शिवाजी नगर में सन्नाटा छा गया। चलता-फिरता चहकता वातावरण मुर्दा हो गया। नगर के चौराहे पर स्थित अखिल भारतीय युवक कांग्रेस के एक कमरे वाले दफ्तर में रोज की हँसी-ठिठोली की जगह चुप्पी लहराने लगी।
अधिकृत तौर पर कांग्रेसी दफ्तर कहलाने वाली यह जगह नगर के भाजपाइयों, जनसंघियों, समाजवादियों, गांधीवादियों और अवसरवादियों का 'अड्डा' है। इसी कमरे से पूरे नगर की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ संचालित होती हैं। यहाँ से देश की सरकार और संसद के कामकाज पर कड़ी निगरानी रखी जाती है। प्रत्येक राजनीतिक दल और सरकार के हर कदम की सूक्ष्म जाँच-पड़ताल की जाती है। सब मिलकर इस बात का विवेचन करते हैं कि किस दल की कौन-सी चाल के देश की राजनीति पर क्या 'साइडइफेक्ट्स' होंगे! यहाँ गांधी और हेडगेवार की तस्वीरें अगल-बगल लगी रहती हैं। यद्यपि चुनाव के दौरान सिर्फ गांधी की तस्वीर रह जाती है। क्योंकि किसी भी वक्त बाहर से बड़े कांग्रेसी नेता के आने की आशंका बनी रहती है।
'राजन, होटल वाले से चाय लाने को बोल आ', कमरे में लहराती हुई चुप्पी को चीरता हुआ सदाशिवराव का स्वर उभरा। युवक कांग्रेस की छत्रपति शिवाजी नगर इकाई के वे पिछले आठ वर्षों से अध्यक्ष हैं।
'यूँ तो आप मँगाते नहीं हैं। आज आपकी खुशी का कारण साफ समझ में आ रहा है', अत्रे ने कहा, 'दो दिनों से नाटक 'बैन' करने को आपकी पार्टी वाले जो बोम मार रहे थे, उससे सरकार के भी कान पक गए। आपको तो खुश होना ही चाहिए।' अत्रे पहले आरएसएस में थे लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के बाद उन्होंने पाला बदल लिया।
'हमारा विरोध नाटक से था। कोई भी सरकार होती, उसे मानना ही पड़ता। वैसे भी इस मुद्दे पर आपकी सरकार और पार्टी के बहुत सारे लोग अंदर ही अंदर हमसे सहमत थे,' सदाशिवराव ने हँसकर कहा, 'आपको परेशान नहीं होना चाहिए, नाटक 'बैन' कर देने से भाजपा की कट्टरपंथी छवि कुछ धुँधली पड़ेगी, जिसका आप लोगों को लाभ मिलेगा, और उन लोगों के मुँह को लगाम लगेगी जो कहते-फिरते हैं कि भाजपा संघ के दिखाने के दाँत हैं या भाजपा संघ की कठपुतली है!'
'यदि हमारा ही फायदा होना था, तो इतना हल्ला क्यों मचाया आपकी पार्टी वालों ने! चलने देते नाटक। बनने देते हमारी छवि कट्टरपंथी। करने देते लोगों को आलोचना,' अत्रे ने आपनी उत्तेजना सँभालते हुए कहा।
'कुछ भी हो, हम राष्ट्रपिता का अपमान सहन नहीं कर सकते,' सदाशिवराव ने दो टूक जवाब दिया।
'आप लोग कब तक गांधी की लाठी का सहारा लेकर चलते रहेंगे,' समर्थभाऊ ने हस्तक्षेप किया। बोले, 'शताब्दी पहले कांग्रेस एक खास उद्देश्य के लिए बनी थी और उद्देश्य पूरा होने के बाद खत्म हो चुकी है। आपकी कांग्रेस उसका 'क्लोन' है। आप लोग देशवासियों को ज्यादा समय तक भरमा नहीं सकते। यह देश हमेशा से ही हिंदुओं का रहा है और आगे भी सिर्फ उन्हीं का रहेगा। अब समय आ चुका है कि जो हिंदू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा।'
'अच्छा, तो आप बताएँगे कि गोडसे के नाटक में कौन सा हिंदू हित छुपा था?' नारायण ने यकायक सवाल दागा, 'गांधी को बदनाम करके आप क्या साबित करना चाहते हैं?'
'आपकी बात गलत है। गांधी की बदनामी हम नहीं चाहते। हम भी मानते हैं कि गांधी एक महान इनसान थे - महात्मा, लेकिन इससे ऐसा तो कोई कारण नहीं बनता कि हम गांधी की पुनर्व्याख्या नहीं कर सकते! अपने समय के हीरो 'हिटलर' को जर्मनों ने आज नकार दिया। लेनिन आज रूस वालों के लिए वो 'लेनिन' नहीं है, जो कभी था। गांधी ने जो कुछ किया उसके कारण और परिणाम हम क्यों जाँच-परख नहीं सकते?' समर्थभाऊ ने अपने केश-रहित सिर पर हाथ फेरा और गहरी साँस लेने-छोड़ने के बाद बोलना जारी रखा, 'वास्तव में सत्ता पाने के लिए कांग्रेस ने गांधी को राष्ट्रपिता घोषित कर दिया और उन पर होने वाली सारी राजनीतिक चर्चाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया। अभी तक वह गांधी और उनके आदर्शों के नाम पर ही देश पर राज कर रही थी। जनता-जनार्दन अब जागरूक हो चुकी है, जल्दी ही परिवर्तन आएगा।'
'परिवर्तन से आपका मतलब है हिंदू राज!' सदाशिवराव बोले।
'नहीं, राम-राज,' समर्थभाऊ ने मुसकराकर जवाब दिया।
'यह तो गांधी का सपना था। आप लोगों ने उनके सपने पर भी कब्जा कर लिया। नाम कुछ भी दें, आपके शासन में आएगा तो हिंदू राज ही। राम-राज की सपना तो कांग्रेस ही सच में बदल सकती है,' सदाशिवराव ने तकिए को टेक लगाया और पाँव पसार दिए।
अत्रे को यह अच्छा नहीं लगा। मुँह बिचकाकर वह थोड़ा बाएँ खिसक गए और आँखें चौड़ी करके कहने लगे, 'तो इसका मतलब है कि गांधी के राम-राज और हमारे राम-राज में आप फर्क मानते हैं!'
'बिलकुल मानते हैं... और फर्क तो होगा ही क्योंकि दोनों के राम में भी तो फर्क है! गांधी के राम उनके हृदय में बसते हैं और आपके मुँह में राम और हृदय में नाथूराम है,' यह कहकर सदाशिवराव ने जोर का ठहाका लगाया। नारायण, सदानंद, राजन और सब कांग्रेसियों ने उनका साथ दिया। संघियों और भाजपाइयों के फूल-से चेहरे मुरझा गए।
झूमते हुए सदानंद गाने लगा, 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल... साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल... रघुपति राघव राजाराम...'
सदाशिवराव ने उसे डाँटकर चुप करा दिया। वे मंद-मंद मुसकरा रहे थे। चाय आ चुकी थी। सबने अपना-अपना गिलास लिया और खत्म किया। कमरे में खामोशी छाई रही। थोड़ी देर माहौल मातमी बना रहा, फिर धीरे-से ताश निकल आए, फिटने लगे। कुछ ही मिनटों में सब सामान्य हो गया, जैसे कोई बात नहीं हुई।
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी
एक सप्ताह बीत गया। युवक कांग्रेस के दफ्तर में सबकी दिनचर्या हमेशा की तरह थी। नाटक पर कई विवाद-विषाद नहीं हुआ। चर्चा भी नहीं छिड़ी। सोमवार को सब जाने लगे, तो सदाशिवराव ने मुझे रोक लिया।
'आजकल होल्कर के घर रोज मीटिंग हो रही है। अत्रे, समर्थभाऊ, नाईक, पारिख, जोशी-सब रात को वहाँ इकट्ठे होते हैं। पता करके तो बता कि क्या चल रहा है,' सदाशिवराव बोले, 'मुझे लगता है कि कोई खिचड़ी पक रही है।'
रात को जब 'मैं घूमते हुए इधर निकल आया' कहते हुए होल्कर के घर पहुँचा, तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। इसका कारण सिर्फ इतना था कि इन बड़ों के बीच अभी तक मेरी कोई 'राजनीतिक साख' नहीं है। सदाशिवराव ने जिन-जिन लोगों का नाम लिया था, वे सभी उपस्थित थे।
वहाँ नारायण को देखकर मुझे जरूर आश्चर्य हुआ। वह घोषित कांग्रेसी है। नारायण मेरे साथ पढ़ा था, लेकिन राजनीति में उसे अपना कैरियर नजर आता था। शुरू में वह शाखा में जाता था और हमेशा 'नमस्ते सदा वत्सले...' गुनगुनाता था। बाद में वहाँ कोई स्कोप न पाकर कांग्रेस सेवादल में भर्ती हो गया। मुझे देखकर नारायण का मुँह बन गया। मैं चुपचाप एक जगह पर बैठा रहा।
अत्रे भन्नाए हुए सरकार पर बरस रहे थे, 'हमारी सरकार होकर भी हमें ही अपनी बात कहने से रोक रही है, यह ठीक नहीं।' अत्रे के अनुसार इस देश में अभी तक सही मायनों में लोक तंत्र नहीं आया है। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक हैं। उनका मानना है कि गांधी का महात्म्य अपनी जगह सही है, परंतु गोडसे को भी महान मानने वाले लोग हमारे यहाँ हैं। हम गोडसे को अपराधी नहीं 'शहीद' मानते हैं, ऐसा क्यों नहीं कह सकते? सरकार को चाहिए कि यदि कोई गोडसे की बातों और उद्देश्यों को स्पष्ट करना चाहे, तो उसे ऐसा करने दे। इस विषय पर 'पब्लिक डायलॉग' होना चाहिए कि जब गांधी की प्रतिमाएँ स्थापित की जा सकती हैं, तो गोडसे की क्यों नहीं! वह हिंदू महासभा का हीरो है।
जोशी ने अत्रे के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें सब्र से काम लेने को कहा।
वहाँ जो भी बातें हुईं, वे मेरी समझ से अत्यधिक क्रांतिकारी थीं। मुझे एहसास हुआ कि अंग्रेजों के राज में आजादी के दीवाने किस तरह छुप-छुपकर योजनाएँ बनाते होंगे। होल्कर के घर में जो बातें हुई, उनका कुल निचोड़ यह था कि अगले महीने छत्रपति शिवाजी नगर में दस दिनों तक चलने वाले गणेशोत्सव में 'मी नाथूराम गोडसे बोलतोय' के हिंदी संस्करण 'मैं नाथूराम गोडसे बोल रहा हूँ' का मंचन होगा।
जिन दिनों मुंबई में इस नाटक का मंचन हो रहा था, होल्कर वहीं थे। उन्होंने नाटक देखा भी। होल्कर के शब्दों में यह नाटक 'उच्च कोटि की विचारोत्तेजक रंगमंचीय परिकल्पना' है। उन्होंने नाटक का ब्रोशर और नाटक पर मुंबई के अखबारों की टिप्पणियाँ सँभाल कर रखी थीं। होल्कर की साहित्य और रंगमंच में गहरी रुचि है, इसलिए उन्होंने तय किया कि वे अपनी स्मरणशक्ति के आधार पर नाटक को यथारूप लिखने का प्रयत्न करेंगे और मंचन तो उनके निर्देशन में होगा ही!
अपनी योजना सभी को समझाकर होल्कर ने नारायण से पूछा, 'तुम्हारा क्या खयाल है हमारी योजना के बारे में...?'
नारायण ने कनखियों से मेरी ओर देखा, फिर बोला, 'यह तो विचारधारा से जुड़ी बात है होल्कर साहब। कोई गोडसे को मानता है... कोई गांधी को। हमारी पार्टी गांधी के सिद्धांतों को मानती है।'
'...और तुम!' पाठक ने शरारत से पूछा।
'हम भी वही मानेंगे, जो पार्टी मानेगी,' नारायण हँसते हुए बोला, 'यह भी कोई पूछने-कहने की बात है!'
बात री बात तेरे मन में घात
सदाशिवराव को जब मैंने बताया कि विरोधी पार्टी वाले गणेशोत्सव पर 'मैं नाथूराम गोडसे बोल रहा हूँ' के मंचन की तैयारी कर रहे हैं, तो एक पल को उनके पैरों तले की जमीन गुम हो गई। नारायण भी होल्कर के घर में था, सुनकर सदाशिवराव के तन-मन में मानो आग लग गई। भितरघात!
सदाशिवराव असमंजस में थे कि क्या करें। साथी कांग्रेसियों से भी बात की लेकिन कोई हल नहीं निकला। दो दिन गुजर गए। तीसरे दिन सदाशिवराव ने मुझे बुलाया, 'नत्थू तुम्हें हमारी मदद करनी पड़ेगी।' मैंने चरणों में बिछ जाने वाले अंदाज में कहा, 'मैं आपके किसी भी काम आ सका, तो मुझे खुशी होगी।' सदाशिवराव का कहा टालने की हिम्मत छत्रपति शिवाजी नगर के किसी नौजवान में नहीं हैं। 'मनी एंड मसल पावर' के जलजले की प्रतिमूर्ति हैं, सदाशिवराव।
'तुमने आर्ट्स में एम.ए. किया है और आर्ट्स में इतिहास भी आता है, है न!'' विश्वास और संशय के मिले-जुले स्वर में उन्होंने कहा।
'आर्ट्स में इतिहास तो आता है पर उसमें बी.ए. होता है, एम.ए. नहीं,' साहस बटोरकर मैंने सदाशिवराव की गलती सुधारी।
'जो भी है, तुमने इतिहास तो पढ़ा है न,' सदाशिवराव ने मेरी आँखों में आँखें डालकर कहना जारी रखा, 'तुम महात्मा गांधी पर एक नाटक लिखो, जिसमें उनके सिद्धांत हों, जैसे गोडसे के नाटक में उसके सिद्धांत हैं। लिखो कि क्यों गांधी ने अहिंसा का मार्ग अपनाया, क्यों सत्याग्रह किया... देश को आजाद कराने के लिए उन्होंने कितनी मेहनत की... लिखो...' इसके आगे कुछ और कहने को सदाशिवराव शब्द ढूँढ़ने लगे। असफल हो जाने पर खिड़की के रास्ते उन्होंने नजरों को आकाश में टाँग दिया।
मैं असमंजस में पड़ गया। हमारी पिछली सात पुश्तों में किसी ने नाटक लिखने का क्या, पढ़ने या देखने तक का विचार नहीं किया। लोग अकसर मुझसे पूछते हैं कि क्या मेरे परिवार का गांधी से कोई रिश्ता है? दूर का ही सही! यदि है, तो मुझे उन पर लिखना चाहिए। मेरी लिखी किताब खूब बिकेगी। मैं उनसे सिर्फ इतना कहता हूँ कि इस संबंध में निर्णायक रूप ने कुछ भी नहीं कह सकता, केवल इतना जानता हूँ कि हम गांधी हैं और जिनके पुरखे गंधक बेचा करते थे, वे आगे चलकर गांधी कहलाए।
'तो तुम नाटक लिखकर कब दोगे?' मुझे खामोशी ओढ़े देखकर सदाशिवराव ने पूछा।
'नाटक खेलने की बात होती, तो मैं कुछ सोचता भी राव जी ...लेकिन, मैं नाटक लिख नहीं सकता,' मैंने मजबूरी जताई, 'मैं गांधी के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं जानता कि नाटक लिख सकूँ। नाटक लिखने के लिए बहुत सारी बातें जाननी पड़ती हैं... फिर उनको लिखना भी तो आना चाहिए!'
'गांधी होकर गांधी के बारे में नहीं लिख सकते। शर्म नहीं आती ऐसा कहते हुए,' सदाशिवराव ने डाँटा।
'शुरू-शुरू में हर काम मुश्किल लगता है,' सदाशिवराव का स्वर यकायक बदल गया, 'पहले मुझे भी लगता था कि मैं राजनीति नहीं कर सकता... पर अब देखो, है कोई माई का लाल जो मुझे चैलेंज कर सके! गोडसे के नाटक का मुँहतोड़ जवाब हम गांधी के नाटक से देंगे ...ऐसा सनसनीखेज नाटक करेंगे कि लोग गोडसे का नाटक भूल जाएँगे।'
मैं समझ नहीं सका कि गांधी के किसी भी नाटक में सनसनीखेज क्या हो सकता है!
'...और इस बार मैं चुनाव जीता कि मंडल ऑफिस में तेरी नौकरी पक्की। नगर विकास कमेटी में भी तुझे लूँगा,' सदाशिवराव मुसकराए, 'तू मेरा इतना काम कर दे, बस!'
सदाशिवराव ने वो मायावी फंदा फेंका, जिसमें मैं क्या मेरे जैसा कोई भी जरूरतमंद पढ़ा-लिखा फँस जाए।
'राजनीति में आजकल ईमानदार और बुद्धिमान लोग नहीं आ रहे हैं, जिनकी वास्तव में देश को बहुत जरूरत है ...मैं तुझे आगे बढ़ाऊँगा,' सदाशिवराव का बोलना जारी था ...लेकिन मैं दूसरे गणित में उलझ चुका था।
काल तुझसे होड़ है मेरी
मैंने दिमाग पर जोर देकर अपनी स्मृति को खँगालना शुरू कि या। स्टूडेंट लाइफ में क्या कभी मैंने गांधी पर चिंतन किया था? शायद उसी का कोई सूत्र हाथ आ जाए।
कुछ देर बाद सीनियर क्लास के एक अध्यापक की बातें याद आईं। वे कुछ इस तरह से थीं - महात्मा गांधी उस भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहाँ विभिन्न धर्मो का सह-अस्तित्व है। इसलिए जो लोग भारत को बहुसंख्यक (हिंदू) लोगों का राष्ट्र मानते हैं, वे कभी गांधी की बातों से सहमत नहीं हो सकते। खास तौर पर तब, जबकि गांधी ने 'विभाजन' को स्वीकृति दी और धर्म के आधार पर हुए बँटवारे को स्वीकार किया। तब इन लोगों द्वारा गांधी को भारत के दुश्मन के रूप में देखा गया था। यही कारण है कि गांधी की हत्या करने वाला गोडसे, जो दूसरों के लिए अपराधी है, इन लोगों के लिए शहीद बन गया।
मुझे लगा कि नाटक लिखने के लिए यह नाकाफी है। मैंने दिमाग पर और जोर दिया। रिचर्ड एटनबरो की ऑस्कर अवॉर्ड विजेता फिल्म 'गांधी' याद आई, जिसे मैंने तीन बार देखा था। मुझे बहुत राहत मिली। मैंने सोचा कि इससे मुझे नाटक लिखने में काफी मदद मिलेगी। विचारों में उलझे हुए मुझे 'गांधी' फिल्म का वह दृश्य याद आया, जिसमें नेहरू से गांधी कहते हैं, 'नेहरू तुम मान जाओ, जिन्ना को प्रधानमंत्री बन जाने दो।' ...और नेहरू के चेहरे पर जो भाव लहराते हैं, वे किसी धीरोद्दात नायक के मुखमंडल पर शोभा नहीं पाते।
मैंने इस दृश्य पर बहुत चिंतन किया -
मुझे लगा कि यदि नेहरू अपनी छुपी हुई राजनीतिक महत्वाकांक्षा का पोषण नहीं करते, तो इस देश को खून से सनी हुई, जख्मी और विभाजित आजादी नहीं मिलती।
मुझे लगा कि नेहरू और गांधी में गंभीर मतभेद थे और गांधी इन्हें मिटाने का निरंतर प्रयास करते रहे, परंतु अंत तक असफल रहे। इसीलिए वे उन लोगों के साथ आजादी के जश्न में शामिल नहीं हुए, जिन्होंने अपने स्वार्थों की बागवानी के लिए विभाजित जमीन का एक टुकड़ा हासिल किया था। देश के करोड़ों लोगों को स्वराज देने के लिए स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की थी।
मुझे लगा कि गांधी उस नदी की तरह थे, जो अपने निर्मल-शिखर-स्रोत से मैदान में उतर तो आती है, परंतु फिर उन लोगों को रोक नहीं पाती, जो उस पर बाँध बनाते हैं, उससे व्यापार करते हैं, उसे मैला करते हैं। नदी को नदी नहीं रहने देते...।
मुझे लगा कि गांधी की हत्या इसी बात का परिणति थी कि गांधी वह नहीं रह गये थे, जो शिखर से चले थे। इसके लिए वे स्वयं दोषी नहीं थे, जैसे नदी मैली हो जाने से लिए स्वयं दोषी नहीं होती। गोडसे की गांधी में श्रद्धा रही होगी, गोडसे ने गांधी के चरण स्पर्श किए होंगे, माना जा सकता है, लेकिन हत्या सबसे अमानवीय, घृणित और बर्बर तर्क है, उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता।
मुझे लगा कि गांधी को लेकर अब तक जो भी बहस हुई - गांधी (पिता) विरुद्ध गांधी (पुत्र), गांधी विरुद्ध अंबेडकर, गांधी विरुद्ध गोडसे, उनसे गांधी के नजरिए और उनकी हत्या के कारणों को उतना नहीं समझा जा सकता, जितना गांधी और नेहरू के बीच मतभेदों और तनावों का खुलासा होने पर समझ में आ सकता है। इतिहास में गांधी और नेहरू अलग-अलग विचारवान व्यक्तित्व होते हुए भी, एक-दूसरे में उलझे हुए हैं। गांधी को यदि उनके व्यक्तित्व के साथ न्याय दिलाना है, तो हमें उन्हें नेहरू से बिलकुल अलग रखकर, वस्तुपरक ढंग से देखना होगा। साथ ही उन भावनात्मक और संवेदनशील रिश्तों को अलग करना होगा, जो गांधी के नेहरू से थे। गांधी के पुनर्मूल्यांकन की जितनी जरूरत है, उतनी जरूरत नेहरू के पुनर्मूल्यांकन की भी है। जिस तरह गांधी अपने सत्याग्रह और अहिंसा के सिद्धांतों में पूर्णतः व्यक्त नहीं होते, उसी तरह नेहरू भी अपने समाजवादी लोकतंत्र और पंचशील के सिद्धांतों में पूर्णतः व्यक्त नहीं होते।
मैंने कभी एक साथ इतनी बातें नहीं सोची थीं, इसीलिए मुझे स्वयं पर आश्चर्य हुआ। मुझे महसूस हुआ कि मैं नाटक लिख सकता हूँ - गांधी विरुद्ध नेहरू!
लेकिन सदाशिवराव को ऐसे नाटक की जरूरत थी, जिसमें गोडसे के आरोपों की न केवल सफाई बल्कि धुलाई की जा सके! मुझे अपने जीवन की पहला रचनात्मक आइडिया ड्रॉप करना पड़ा। मुझे अत्यंत विषाद हुआ। क्या किसी नवोदित रचनाकार के साथ ऐसी 'ट्रेजडी' हुई होगी! रचनाकार पर बाजार का दबाव इसी को कहते हैं! मेरी इच्छा हुई कि लेखन कार्य का श्रीगणेश करने से पहले ही लेखकीय अभिलाषा को विसर्जित कर दूँ... और लिखूँ अपने 'न लिखने का कारण।' और चीख-चीखकर कहूँ दुनिया से कि देखो बाजार के दबाव के चलते एक लेखक जन्म लेते-लेते रह गया! (भ्रूण हत्या और गर्भपात मुझे हिंसक शब्द लगते हैं, इनसे जुगुप्सा का भाव पैदा होता है और उबकाई आती है।)
काफी ऊहापोह के बाद अंततः मैंने तय किया कि मैं लिखूँगा। सदाशिवराव के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि नौकरी पाई जा सके... और वैसा लिखूँगा, जैसा सदाशिवराव कहते हैं।
भगवान झूठ न बुलवाए
तीन दिनों तक लगातार मैं अपनी वैयक्तिक प्रज्ञा से विस्मित रहा। जाने कब से मैं अपनी प्रतिभा को विस्मृत किए था।
नाटक पूरा हो गया। नाम दिया - 'मैं महात्मा गांधी बोल रहा हूँ।'
पहले तो लगा कि गांधी अपने मुँह से खुद को 'महात्मा' कहें, अच्छा नहीं है। फिर खयाल आया कि यह बिलकुल समयानुकूल है। यह बाजार और विज्ञापन का युग है। हम उसके अंग हैं। हम पर भी बाजार के नियम लागू होते हैं। अतः अपनी तारीफ हम स्वयं नहीं करेंगे, तो कौन करेगा। दूसरा तो बुरा कहने को कमर कसे ही है! महात्मा गांधी के लिए यह 'करो या मरो' और 'अभी नहीं तो कभी नहीं' की कठिन घड़ी है।
सदाशिवराव ने नाटक पढ़कर मेरे हाथ चूमे और कहा, 'काश तुम लड़की होते...'
मैं लड़की की अदा में लजा गया। मैंने कहा, 'मेरी नौकरी तो पक्की हुई न राव साहब!'
मेरी बात सुने बगैर वे भाषण देने के अंदाज में बोले, 'मैं हमेशा कहता हूँ कि प्रतिभाएँ इस देश में अटी पड़ी हैं। 'एक ढूँढ़ो हजार मिलती हैं / दूर ढूँढ़ो पास मिलती हैं,' असली जरूरत है उन्हें पहचानने की। तराशने की। यह देश आज सोने की चिड़िया नहीं रहा तो क्या, ये प्रतिभाएँ उस चिड़िया के सुनहरे बच्चे हैं...!'
सदाशिवराव की बात सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था। वे मेरी प्रशंसा करते रहे। उनकी इच्छानुसार मैंने नाटक को सनसनीखेज बना दिया था। ऐसा प्रतीकात्मक प्रयोग किया, जो आज तक किसी नाटककार और फिल्मकार के दिमाग में नहीं आया होगा। इतिहासकार ने तो इसकी कल्पना तक नहीं की होगी।
नाटक में मैंने गांधी को नाथूराम गोडसे की गोलियों से नहीं मरने दिया। गांधी विरुद्ध गोडसे - यह किस्सा ही खत्म। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी!
मोटे तौर पर नाटक का अंतिम दृश्य इस प्रकार था :
सुबह का समय। चारों ओर शांति।
पाँच-छह वर्ष का एक बालक मंच पर प्रवेश करता है, मध्य प्रदेश पाठ्यपुस्तक निगम की पहली कक्षा की पुस्तक से कविता पाठ करता हुआ:
'माँ खादी की चादर दे दे, मैं गांधी बन जाऊँ।
सब मित्रों के बीच बैठकर, रघुपति राघव गाऊँ।
छोटी-सी धोती पहनूँगा, खादी की चादर ओढ़ूँगा।
घड़ी कमर में लटकाऊँगा, सैर सवेरे कर आऊँगा।
मुझे रूई की पोनी दे दे, तकली खूब चलाऊँ।
माँ खादी की चादर दे दे, मैं गांधी बन जाऊँ।।'
जैसे ही कवितापाठ पूर्ण होता है, एक व्यक्ति उस बालक पर तीन गोलियाँ दागता हुआ भाग जाता है। बालक 'हे गांधी...!' कहता हुआ तत्काल प्राण त्याग देता है। तभी गांधी आते हैं और उस मृत बालक का सिर अपनी गोद में रखकर विलाप करते हैं (इस दृश्य में निर्देशक को यह छूट है कि वह चाहे तो मंच के आकार और अपनी सुविधानुसार भीड़ इकट्टी कर सकता है। लेकिन गांधी उस भीड़ में कहीं खो न जाएँ इसका ध्यान रखना होगा। - लेखक यानी नत्थू)। विलाप के साथ गांधी अत्यंत कारुणिक ढंग से सत्य, अहिंसा, प्रेम और शांति के पक्ष में अपने विचारों को एक-एक कर दर्शकों के सामने प्रस्तुत करते हैं। (यदि मंच पर लोग उपस्थित हैं, तो निर्देशक उनसे हुँकारे भरवाकर गांधी के वचनामृतों की पुष्टि भी करवा सकता है। हुँकारों को संवादों का श्रेणी में रखा जाएगा -लेखक यानी नत्थू)। अंततः अपना प्रिय भजन 'वैष्णवजन तो तैणे कहिए जे पीर पराई जाणैं रे...' गाते हुए गांधी उस बालक के शव पर प्राणोत्सर्ग कर देते हैं। उनकी आत्मा दिव्य ज्योति की तरह शरीर त्यागकर मंच के कोने में रखी, देवों के देव महादेव शंकर की प्रतिमा में विलीन हो जाती है। महादेव शंकर के अवतार थे गांधी! इस बात की जानकारी देश के मुट्ठी भर लोगों को भी नहीं है।
भगवान शंकर मंच पर प्रकट होते हैं और भारत को दैहिक, दैविक, भौतिक आपदाओं से सदा मुक्त और सुखी रहने का आशीर्वाद देते हैं। इसके बाद भगवान गणेश आकर अपने पिता की स्तुति करते हैं और अंत में बहुत सारे भक्तगण मंच पर 'गणपति बप्पा मोरया...' का जयघोष करते हुए उनकी आरती उतारते हैं।
परदा गिरता है।
सदाशिवराव की खुशी ठिकाने पर नहीं थी। वे बोले, 'यह नाटक इतिहास को भी चुनौती देने की क्षमता रखता है। हिंदूवादी शक्ति के हाथों धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र को हुई अपूरणीय क्षति का इतिहास मिटाने के लिए हम जब भी इतिहास का पुनर्लेखन करेंगे, यह नाटक उसका ठोस आधार होगा। हम इतिहास से गोडसे का नामो-निशान मिटा देंगे।'
'सदियों रहा है दुश्मन दौरे-जहाँ हमारा,
'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी...'
इकबाल की ये पंक्तियाँ हमेशा की तरह सदाशिवराव ने कांग्रेस के संदर्भ में गुनगुनाईं और आदतानुसार खिड़की से आकाश को निहारते हुए कहीं खो गए।
हमसे बढ़कर कौन ?
छत्रपति शिवाजी नगर के इतिहास में पहली बार मतभेद इतने गहराए कि किसी मुद्दे पर लोग स्पष्टतः दो धड़ों में बँट गए। वैचारिक विभाजन इतना साफ था कि एक दल बना '0% गोडसे', '100% गांधी' और दूसरा बना '0% गांधी', '100% गोडसे'। यह विभाजन ठीक 1947 में हुए देश के बँटवारे की तरह था। जमीन में दरारें नहीं पड़ीं, लेकिन दिल दूध की तरह फट गए। शुरू में कुछ लोग तटस्थ थे लेकिन जैसे-जैसे मामला गरमाया, उन्हें बोध हुआ, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध! वे फुर्ती से इधर-उधर हो गए।
छत्रपति शिवाजी नगर दिन में अब जाने कितनी बार नारों से गूँज जाता। कहीं से आवाज उठती, 'जब तक सूरज-चाँद रहेगा / गांधी तेरा नाम रहेगा!'
क्षण भर के सन्नाटे को चीरती हुआ दूसरा गगनभेदी स्वर विपरीत दिशा से उठता, 'जब तक सूरज-चाँद रहेगा / तब तक नाथूराम रहेगा!'
अमरता के ये नारे पूरी तबीयत से उछलने के बावजूद आसमान में सुराख नहीं कर पाते और नश्वरता को प्राप्त होते। आसमान नारा लगाने वालों को नजर भरकर देखता और मुसकरा उठता।
अगस्त आ चुका था। गणेशोत्सव प्रारंभ होने में मात्र एक पखवाड़े से कुछ ही ज्यादा समय शेष रह गया था। दोनों दल पूरे जोर-शोर से नाटकों की तैयारी में लगे थे। प्रतिदिन सुबह फिल्म 'टक्कर' के गीत से छत्रपति शिवाजी नगर का कोना-कोना गूँज उठता, 'देवा ओ देवा... गणपति देवा... तुमसे बढ़कर कौन?...' और फिर 'हमसे बढ़कर कौन?' के अंदाज में रिहर्सल शुरू हो जाती। अशोक कुमार से आमिर खान तक... अभिनय के सोपानों पर शोधपूर्ण चर्चा होती कि किस दृश्य में किसके जैसी एक्टिंग करके 'वाह! क्या सीन है' वाला प्रभाव लाया जा सकता है।
फाइनल काउंटडाउन जैसे ही शुरू हुआ यानी जब मात्र दस दिन बाकी रह गए, तभी 'मैं नाथूराम गोडसे बोल रहा हूँ' मंचित करने वालों पर मानो गाज गिर पड़ी। (सदाशिवराव ने इसे महादेव शंकर के तीसरे नेत्र का प्रकोप माना!)
नाथूराम गोडसे का अभिनय कर रहे सदानंद की नौकरी रेलवे में लग गई! कॉल लैटर में उसे तीन दिनों के भीतर नौकरी जॉइन करने का आदेश था। शहर में नहीं, बल्कि शहर से आठ सौ किलोमीटर दूर पुणे में। सदानंद के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उधर, होल्कर और उनके साथी धरती माता से फट जाने की प्रार्थना करते हुए, उसमें समा जाने की अभिलाषा व्यक्त कर रहे थे। उनके चेहरों पर ऐसा मातम छाया था, मानो उनका कोई सगा इस मृत्युलोक से स्वर्गलोक को कूच कर गया! किसी ने भी सदानंद को नौकरी पाने की बधाई नहीं दी। सदानंद उन्हें अपनी खबर देकर धीरे से खिसक लिया।
सदाशिवराव ने सदानंद को नौकरी पाने पर हार्दिक बधाई दी और सबको मिठाई खिलाई। सदनंद के घर उन्होंने एक किलो काजूकतली का 'गिफ्टपैक' अलग से भिजवाया।
हम आपके हैं वो
होल्कर, समर्थभाऊ और नारायण शाम को मेरे घर पधारे। यह अचरज में डाल देने वाली बात थी। मैं समझ गया, 'जब वक्त पड़े बाँका, तो गधे को कहो काका।' नारायण ने उन्हें बता दिया होगा कि मैं स्कूल और कॉलेज के वार्षिकोत्सव में मंच पर अपनी अभिनय-प्रतिभा के रंग बिखेरता रहा हूँ। कॉलेज में एक वर्ष 'ड्रामाफेयर' पुरस्कार के लिए मेरा नामांकन भी हुआ था, लेकिन सदानंद ने 'पॉलिटिक्स' करके बाजी मार ली थी। 'हमें मालूम है कि सदाशिवराव को तुमने नाटक लिखकर दिया है और उसने तुम्हें नौकरी लगवाने का भरोसा दिलाया है। मगर इस बार वह मंडल में नहीं जीतने वाला। वह अपने लोगों से दगा कर रहा है और तुम देखना इस चुनाव में सब उसकी कढ़ी पतली कर देंगे,' होल्कर ने सख्त आवाज में कहा। फिर नर्म होते हुए बोले, 'जहाँ तक तुम्हारी नौकरी का प्रश्न है, उसके लिए मैंने समर्थभाऊ से कह रखा था। ये बातें न भी होतीं, तो चुनाव जीतकर हम तुम्हारी नौकरी लगवाते ही।'
'... और तुम चाहे इस घड़ी हमारी सहायती करो या न करो, मैं स्टांप पर तुम्हें लिखकर दे सकता हूँ कि अगले सत्र में तुम्हारी नौकरी पक्की। मेरे असिस्टेंट का पद पिछले दो वर्षों से खाली है। कोई समझदार लड़का नहीं मिल रहा था', समर्थभाऊ ने विश्वास दिलाने वाले लहजे में कहा। मेरे लिए धर्मसंकट के इससे कठिन क्षण आज तक नहीं आए। यदि इन्हें 'हाँ' कह दूँ, तो सदाशिवराव को क्या मुँह दिखाऊँगा? लेकिन इन्हें 'नहीं' किस मुँह से कहूँ! फिर दो नावों के सवार को कौन समझदार कहेगा। ज्ञानी जन कह गए हैं 'एक साधे सब सधै, सब साधे सब जाय'! मेरा विश्वास मजबूत हुआ कि नियति हमेशा मेरे साथ क्रूर मजाक करती है। मैंने क्या बिगाड़ा है उसका! कोई कह सकता है मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं, पर मेरा दिल जानता है कि सामने कुआँ, पीछे खाई है! और बीच के रास्ते पर बढ़ना तलवार की धार पर चलने से कम नहीं है।
नियति अपने शिकार को ऐसे ही घेरती है। बलिदानी बाली, राजा शिबि, दानवीर कर्ण के उदाहरण हमारे सामने हैं - 'मेहमाँ जो हमारा होता है, वो जान से प्यारा होता...।' घर आए याचक को खाली हाथ लौटाना हमारे संस्कारों में नहीं है। जीवन वही सम्माननीय है, जो मरते दम तक दीन-दुखियों के काम आ जाए। होल्कर, समर्थभाऊ और नारायण की हालत पर मुझे तरस आ गया।
'मुझे नौकरी की परवाह नहीं। मैं आपके साथ काम करूँगा। जो इनसान दूसरों के काम न आ सके, उसका जीना ही बेकार है,' जीवन में पहली बार मेरे मुँह से राजनीतिक शब्द निकले। अपने नैतिक पतन पर थोड़ा पश्चाताप हुआ, किंतु फूटा बोल और छूटा तीर कब लौटता है?
'हमें तुमसे यही उम्मीद थी।' यह कहते हुए होल्कर के चेहरे पर सौ वाट के बल्ब जैसी रौनक हो गई।
नारायण ने मुझे नाटक की स्क्रिप्ट दी और सुबह होल्कर के घर पहुँचने को कहा। समर्थभाऊ ने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया कि तैयारी के लिए समय बहुत ही कम रह गया है। नाटक सफल होगा या असफल, यह सिर्फ मुझ पर निर्भर करती है। जाते-जाते उन्होंने मेरी पीठ ठोकी और बोले, 'बेस्ट ऑफ लक।'
अगले दिन होल्कर के घर जो बात मुझे मालूम हुई, उससे मेरा कलेजा मानो उछलकर हलक में अटक गया। यह होती है राजनीति!
नारायण ने बताया कि सदानंद यदि यूँ अध-बीच में 'गच्चा' न देता, तो वे लोग 15 अगस्त को ही नाटक का मंचन कर देते यानी सिर्फ चार दिनों बाद ही! तैयारी उसी दिन के लिए चल रही थी। गणेशोत्सव पर नाटक के मंचन का प्रचार मात्र था। यदि सब योजनानुसार हो जाता, तो सदाशिवराव के पास गांधी की तस्वीर के सामने बुक्का-फाड़-विलाप के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता। लेकिन विधि के विधान को कौन चुनौती दे सकता है! तय हुआ कि गणेशोत्सव पर ही नाटक का मंचन होगा।
तेरा क्या होगा नत्थू
नाथूराम गोडसे की भूमिका निबाहते हुए मैंने पाया कि मैं अकल्पनीय ऊर्जा से भर जाता हूँ। मेरी साँसें गर्म हो जाती हैं। मेरे हृदय की धड़कनें तेज हो जाती हैं। मेरी आँखें हीरे की तरह चमकने लगती हैं। मेरी आवाज कुछ भारी किंतु मीठी और ओजस्वी हो जाती है। मेरी भुजाओं में पंखों-सा कुछ फड़फड़ाता है। संवाद अदायगी की तीव्रता से मेरी छाती, मस्त हवा से खटखटाते कपाटों-सी बजने लगती है। इन सबका संयुक्त परिणाम यह होता कि मेरी आवाज सीधे दिल से निकलती लगती! धीरे-धीरे मेरा जादू लोगों पर छाने लगता... 'मैं नाथूराम गोडसे बोल रहा हूँ।'
जैसे ही तालियों की गड़गड़ाहट मेरे कानों में पड़ती, मैं असली दुनिया में लौट आता। उस मीठी थकान के साथ, जो किसी मिशन के पूरा होने पर सैनिक की प्रसन्नता में छुपी होती है।
'सचमुच तुम सदानंद से बेहतर हो,' सुनते ही कॉलेज में 'ड्रामाफेयर पुरस्कार' न जीत पाने की मेरी पीड़ा मंद पड़ जाती। सच्चे निर्णायक तो दर्शक हैं, ट्राफियाँ थोड़े ही!
'मुझे लगता है कि इस महत्वपूर्ण नाटक में अभिनय करने के लिए ही तुमने जन्म लिया है। तुम्हारा नाम और जीवन दोनों सार्थक हो रहे हैं। बहुत किस्मत वाले हो तुम... नत्थू! सच कहूँ तो मुझे कभी-कभी तुमसे ईर्ष्या होने लगती है...' नारायण ये बातें मुझसे अकसर कहता। मैं उसकी बातों का कोई निश्चित अर्थ नहीं लगा पाता।
सदाशिवराव ने एक बच्चे के हाथों मेरे नाम संदेश भेजा, 'तुम भी घर के भेदी निकले, विभीषण! जिधर मुँह काला किया है, उधर ही रहना। अब मुझे अपनी सूरत मत दिखाना।' - सदा तुम्हारा, सदाशिवराव। शब्दों के बीच जो पीड़ा और प्रेम छुपा था, उसे पढ़कर मेरी आँखों में आँसू आ गए। एक पल को लगा कि भागकर सदाशिवराव के पास जाऊँ और उसके चरणों में पड़कर माफी माँग लूँ। होल्कर को इनकार कर दूँ। कोई और नाथूराम ढूँढ़ लें।
दोनों ही बातें असंभव थीं।
अंततः वह दिन आ गया, जिसे नियति ने मेरे लिए तय कर रखा था, जबकि आधी दुनिया सोने जा रही थी और आधी दुनिया नींद से जागकर अलसा रही थी, छत्रपति शिवाजी नगर का हॉल खचाखच भरा था। मंच के बीचों-बीच मैं खड़ा था। प्रकाश का एक वृत्त मुझे घेरे था, बाकी सब ओर अँधेरा ही अँधेरा था।
पहली घंटी बजी। मैंने दो कदम दर्शकों की ओर बढ़ाए और कड़क आवाज में कहा, 'मैं नाथूराम...'
यकायक माइक बंद हो गया। बिजली गुल!
पुलिस मंच की छाती पर खड़ी थी। हॉल में बैठे लोगों को जैसे साँप सूँघ गया। सुई-पटक-सन्नाटा!
'गोडसे' मेरे गले में अटककर फड़फड़ाने लगा।
बाकी जो बचा
नत्थू की डायरी के पन्ने ऊपर ही समाप्त हो जाते हैं। इसलिए अब इस अकिंचन को पाठकों से सीधी बात करनी पड़ रही है।
नियति ने नत्थू के नाटक के लिए जो दिन तय कर रखा था, उस दिन से मेरा मित्र नत्थू लापता है। मंच की छाती पर खड़ी पुलिस भी नहीं जानती कि नत्थू कहाँ है। उसे जमीन खा गई या आसमान निगल गया। नत्थू के इस तरह गायब हो जाने की छत्रपति शिवाजी नगर में तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ चुकी हैं। ढंगी-बेढंगी अफवाहें हैं। कुछ का मानना है कि नत्थू को 'किडनैप' कर लिया गया है। कुछ कहते हैं कि वह खुद ही 'अंडरग्राउंड' हो गया है। एक न एक दिन वह ढेर सारी ताकत लेकर लौटेगा और हिटलर की तरह देश पर राज करेगा। किसी-किसी का यह भी खयाल है कि वह साधु बन गया है।
उसके घरवालों ने कई शहरों में यह इश्तहारी पोस्टर छपाकर बँटवाए और चिपकवाए - 'प्यारे नत्थू, तुम जहाँ भी हो घर लौट आओ। तुम्हारी माँ रो-रोकर बीमार पड़ चुकी है। तुम नहीं लौटे, तो वह जिंदा नहीं बचेगी।' लेकिन अभी नत्थू घर नहीं लौटा है। कोई नहीं जानता कि वह लौटेगा या नहीं।
जहाँ तक नत्थू की डायरी के मेरे पास होने का सवाल है, वह एक अलग घटना से जुड़ा है।
नत्थू के लापता होने के कई दिनों बाद छत्रपति शिवाजी नगर से लगे छोटे जंगल से एक शाम कुछ बच्चे भागे-भागे घबराए-से लौटे। हाँफते हुए बच्चों ने यह कहकर हल्ला मचा दिया कि उन्होंने जंगल के एक पेड़ पर नत्थू की लाश को लटकते हुए देखा है। उसके गले में फंदा था। उसके बदन पर कोई कपड़ा नहीं था। सिर्फ जाँघिया था। वह भी घुटनों के नीचे तक सरका हुआ। उसके 'पीछे' से खून बह रहा था। पैरों और जाँघिए पर खून सूख गया था। उस पर बहुत सारी मक्खियाँ बैठी थीं। ढेर सारी भिनभिना रही थीं। नत्थू की लाश पेड़ से लटकी हुई, हवा में धीरे-धीरे हिल रही थी। यह देखकर बच्चे डर गए थे और भागे-भागे आए थे।
बच्चों की बातें सुनकर लोग सकते में आ गए। दो कांस्टेबलों और थाना इंचार्ज के साथ भारी भीड़ उस जगह पर गई, जो बच्चों ने बताई थी। लेकिन वहाँ कुछ नहीं था। न लाश। न बताई गई जगह के आस-पास खून के निशान। भीड़ और पुलिस वाले निराश होकर लौट आए। बच्चों से पूछा गया कि कहीं यह उनकी शरारत तो नहीं थी। लेकिन बच्चे अपनी बात पर अड़े रहे। आखिर में तय हुआ कि बच्चों को धोखा हुआ है। उन्हें आगे से जंगल में न जाने की हिदायतें दी गई।
दूसरे दिन मैं अकेला उस जगह पर गया जहाँ बच्चे, पुलिस और भीड़ गई थी। वहाँ वैसा कुछ नहीं था, जैसा बच्चों ने बताया था। काफी देर तक यहाँ-वहाँ भटकने पर झाड़ी में मुझे डायरी दिखी। यह नत्थू की डायरी थी। जिस पर हरे रंग का कवर था। कुछ पलों के लिए मैं स्तब्ध रह गया।
लेकिन आस-पास सिवा सन्नाटे के कुछ न था। यह डायरी यहाँ कैसे आई? इसका कोई जवाब मेरे पास नहीं था। बच्चों की बात पर मुझे यकीन हो गया। वहाँ से लौटने पर बच्चों की, नत्थू की लाश के 'पीछे' से खून निकलने वाली बात पर भी मेरा विश्वास पुख्ता हुआ क्योंकि डायरी में नत्थू ने अपनी प्रेमिका को संबोधित करते हुए एक जगह लिखा था, '...मैं तुम्हें धोखे में रखना नहीं चाहता। मोहल्ले के कई बड़े लोग बचपन से मुझे 'एक्सप्लॉइट' करते रहे हैं। मैं तुम्हारे काबिल नहीं हूँ...' वगैरह-वगैरह। नत्थू की डायरी में न तो प्रेमिका का नाम लिखा है और न ही उन बड़े लोगों का जिन्होंने बचपन से उसे 'एक्सप्लॉइट' किया। मेरी आँखों के सामने नत्थू का चॉकलेटी चेहरा तैर गया। गोरा-चिट्ठा, तीखी नाक, बड़ी सुंदर आँखे और सुर्ख लाल होंठ।
समय को उसकी घटनाओं के समानांतर कोई नहीं लिख सकता, यानी गायब होने के बाद तक नत्थू जिंदा था और डायरी लिख रहा था। डायरी को लेकर कई सवाल मेरे मन में थे। मसलन, नत्थू ने नाटक के मंच से गायब होने के बाद के एक क्षण का भी कोई जिक्र क्यों नहीं किया? क्या वह खुद गायब हो गया था या किसी ने उसे गायब कर दिया था? यदि उसे गायब कर दिया गया था, तो क्या वह डायरी लिखते पकड़ा गया था? क्या उसी का परिणाम था वह दृश्य, जो बच्चों ने देखा था? लेकिन उस दृश्य समेत नत्थू कहाँ लापता हो गया? यदि नत्थू अपनी डायरी को और आगे लिखता, तो क्या लिखता? क्या नत्थू के डायरी लिखने से किसी को नुकसान था? क्या नत्थू की डायरी को कुछ लोग खोज रहे हैं?
जिस दिन मुझे यह डायरी मिली, उस रात नत्थू मेरे सपने में आया। वह नंगा था। जाँघिया उसके घुटनों से नीचे सरका हुआ था। नत्थू अपने हाथ जाँघों के बीच फँसाए था। उसका गोरा-चिट्टा रंग काला पड़ चुका था। तीखी नाक पिचक चुकी थी। उससे खून बह रहा था। बड़ी-सुंदर आँखें झाड़ी हुई राख-सी बुझी-बिखरी थीं। सुर्ख लाल होंठ पपड़ाए थे, जैसे कई दिनों से पानी न छुआ हो। वह रो रहा था। वह रोते-रोते बमुश्किल बोल पा रहा था। उसने मुझसे इतनी-सी इच्छा जाहिर की कि मैं उसकी विडंबनापूर्ण करुण कहानी दूसरों तक पहुँचा दूँ। मैंने उसे विश्वास दिलाया, लेकिन कहानी को ठीक ढंग से लिखने के लिए अपने सवालों का जवाब भी चाहा। मैंने उससे कहा कि इन सवालों के जवाब के बगैर कहानी अधूरी लगेगी और कोई भी इस पर भरोसा नहीं करेगा। लेकिन वह सिर्फ इतना कहकर उठा कि जब तक तुम मेरी कहानी नहीं लिख दोगे, मैं इसी तरह तुम्हारे सपने में आता रहूँगा। दुनिया माने या ना माने यह तुम्हारे सोचने की बात नहीं है। फिर वह मुड़कर जाने लगा। उसके 'पीछे' से खून निकल रहा था।
नत्थू का यह सपना मुझे कई महीनों से रोज आ रहा है। किसी भी दिन इसकी तीव्रता कम नहीं हुई। नत्थू ने कहा था कि उसकी कहानी जिस दिन पूरी कर दूँगा, वह सपने में आना बंद कर देगा। लेकिन मैं सोचता हूँ कि अब भी नत्थू कम से कम एक बार मेरे सपने में आए और मेरे सवालों का जवाब दे दे। मैं उनका जिक्र किसी से नहीं करूँगा।